राजस्थान में फैल रही है लम्पी स्किन डिज़ीज़, संक्रमित पशुओं का घट जाता है दुग्ध उत्पादन
राजस्थान की बड़ी आबादी पशुपालन से जुड़ी हुई है इसलिए पशुओं में जब कोई संक्रामक बीमारी फैलती है तो उसका एक भारी भरकम नुक़सान पशुपालकों को उठाना पड़ता है। हाल ही में राजस्थान के अधिकतर ज़िलों में “लम्पी स्किन डिज़ीज़” नामक बीमारी देखी गयी है।
रोग़जनक
यह एक विषाणु जनित तीव्र संक्रामक बीमारी है जो कि संक्रमित पशु से स्वस्थ पशुओं में प्रसारित होती है। यह बीमारी गाय और भैंस में मुख्यतया देखी गयी है। इस बीमारी का कारण कैप्रीपॉक्स विषाणु (Capripox virus) नामक रोगजनक है जो कि मच्छरों और कीड़े मकोड़ों और जूँ के माध्यम से एक पशु से दूसरे पशु में फैलता है। संक्रमित पशु के सम्पर्क में आने पर भी स्वस्थ पशुओं में इसका प्रसार हो सकता है।
लक्षण
संक्रमण होने के 2-4 हफ़्तों के बाद लक्षण दिखायी देते हैं। लम्पी स्किन डिज़ीज़ में तेज बुख़ार के साथ साथ पशु के शरीर के विभिन्न भागों में 2 से 5 सेंटिमीटर व्यास की दर्दनाक गाँठे बनने लगती है लेकिन जिस भाग पर छोटे बाल हैं और त्वचा कोमल है, वहाँ ज़्यादा गाँठे दिखायी देती है मुख्यतः सिर, गर्दन, थनों और जननांगो के पास। ये गाँठे धीरे धीरे एक बड़े और गहरे घाव का रूप ले लेती हैं। अत्यधिक लार स्राव तथा नाक और आँखों से भी पानी निकलने लगता है जो कि संक्रमण का कारण बनता है। संक्रमित पशुओं का दुग्ध उत्पादन कम हो जाता है तथा दाना चारा खाना भी कम हो जाता है जिससे पशु कमजोर हो जाता है। त्वचा के घाव कई दिनों या महीनों तक बने रह सकते हैं। कुछ मामलों में पशु में लंगड़ापन, गर्भपात और बाँझपन भी हो सकता है। कई मामलों में पशु की मृत्यु भी हो जाती है। हालाँकि मृत्यु दर 10% से भी कम है।
उपचार
विषाणुजनित संक्रमण होने के कारण इसका कोई प्रभावी उपचार नहीं है लेकिन त्वचा में द्वितीयक संक्रमणों का उपचार ग़ैरस्टेरोईडल एंटी इन्फ़्लैमटॉरी और ऐंटीबायआटिक दवाओं से किया जा सकता है।अगर समय रहते इलाज करवा लिया जाए तो लक्षणों के आधार पर उपचार करने पर अधिकतर पशु स्वस्थ हो जाते है और पशु में इस बीमारी के प्रति प्रतिरक्षा भी विकसित हो जाती है। पशुपालक संक्रमित घाव को एक प्रतिशत पोटेशियम परमेगनेट (लाल दवा) के घोल से साफ़ करके एंटीसेप्टिक मलहम लगाकर संक्रमण को रोका जा सकता है।
रोकथाम
इस बीमारी के लिए फ़िलहाल कोई टीका उपलब्ध नहीं है।
फार्म में सख़्त जैव सुरक्षा उपायों को अपनाया जाना चाहिए।
प्रभावित क्षेत्रों से पशुओं के आवागमन को रोकना चाहिए। संक्रमित पशु को बाक़ी स्वस्थ पशुओं से अलग रखना चाहिए तथा उसका चारा ,पानी बाक़ी पशुओं से अलग रखा जाना चाहिए। इसके साथ ही मच्छरों और मक्खियों के नियंत्रण के लिए उचित कीटनाशकों का उपयोग करना चाहिए।
फार्म और आसपास के क्षेत्रों में साफ़ सफ़ाई का विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए।
इस बीमारी के लिए वर्तमान में बकरी के चेचक के टीके के उपयोग को सहमती मिली है।
स्वस्थ पशुओं में टीकाकरण सर्वोत्तम उपाय है।
इसके अलावा पशु की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए सूखे आँवले और गिलोय की पत्तियाँ पशु को खिलायी जानी चाहिएँ।
फिटक़री और नीम के पत्तों का लेप बनाकर संक्रमित पशु के शरीर पर लगाया जाना चाहिए।
Contributor- Dr. Keshav