सूतिकादशमूल – लघुपंचमुल, सहचर, प्रसारणी, गुडूची, विश्वा, मुस्तक (लघुपंचमुल में आने वाले द्रव्य – शालपर्णी, पृष्नपर्णी, बड़ी कटेरी, छोटी कटेरी, गोक्षुर )
वरी – वरी शब्द शतावरी के लिए प्रयोग होता है।
वरा – वरा शब्द त्रिफला (हरितकी, आमलकी, विभितकी) के लिए प्रयोग होता है।
वर – वर शब्द कुंकुम / केशर के लिए प्रयोग होता है।
वरांग – वरांग शब्द दालचीनी के लिए प्रयोग होता है।
नोट - सुश्रुत संहिता में २९० द्रव्यों की संख्या का उल्लेख है।
कुछ मिलते जुलते पर्याय –
उग्रगंधा वचा का पर्याय है परंतु उग्रगंध रसोन के लिए प्रयुक्त होता है। इसी प्रकार श्रीपर्ण अग्निमंथ का पर्याय है, श्रीपर्णी गंभारी का और क्षीरपर्ण अर्क का पर्याय है।
कृष्ण काली मिर्च के लिए प्रयुक्त होता है और कृष्णा पिप्पली का पर्याय है, इसी तरह अमृत वातस्नाभ का और अमृता गुडुची का पर्याय है।
नोट -
•Full form of API = Active pharmaceutical index
•Ayu64 के मुख्य घटक द्रव्य - कटुकी, किरातिक्त, सप्तपर्ण, लताकरंज
•आयुष क्वाथ के घटक द्रव्य - तुलसी (४ भाग), शुंठी (२ भाग), दालचीनी (२ भाग), कालीमिर्च (१ भाग)
•अनलनामा चित्रक का पर्याय है, इसको doctor bush भी कहते है ।
•अश्वगंधा is the most popular antidepressant and nerve tonic
•गंभारी का फल शीत वीर्य होता हैं ।
•ज्योतिष्मती का प्रतिनिधी - लवंग का तैल (यह antioxidant होता हैं)
•किरातिक्त का प्रतिनिधी - कालमेघ
•तिक्त रस ज्वरघ्न होता हैं
•गंधविरोजा का वानस्पतिक स्त्रोत सरल होता है
•जपा गर्भरोधक होता हैं, लोध्र आर्तवसंग्रहणीय होता हैं एवं रोहितक की त्वक प्लीहघ्न होती हैं ।
•Poisonous constituent of एरण्ड बीज - Ricine, Ricinine
•रसांजन - दारुहरिद्रा से रसक्रिया विधि द्वारा जो घन सत्व प्राप्त होता है, वह रसांजन कहलाती हैं ।
•त्वक (दालचीनी) में सिनेमिक एसिड नामक तत्व पाया जाता हैं जो यक्ष्मानाशक हैं ।
•यवानी (अजवाइन ऑयल) में मुख्य रूप से थाइमोल होता है। तैल को ठंडा करने पर थाइमोल जम जाता है,जो अजवाइन का सत के नाम से जाना जाता है, जो बचा हुआ तैलांश होता है उसे थाइमिन कहते हैं ।
Important points to learn-
अहिफेन शोधन - अहिफेन को पानी में घोलकर रखे और फिर कपड़े से छान ले, अब अग्नि पर चढ़ा कर इसको गाढ़ा करने के पश्चात आद्रक स्वरस की २१ भावना देने से अहिफेन शुद्ध हो जाता है।
Contraindication of आद्रक - आद्रक की उष्ण और तिक्षणता के कारण इसका प्रयोग ग्रीष्म ऋतु, पित्त प्रकृति के पुरुष को नही करना चाहिए ।
अतिविषा का शोधन - गोमय स्वरस में स्वेदन करने के बाद इसे अग्नि मे सुखा लेने से अतिविषा का शोधन हो जाता है।
अतिविषा के विषाक्त लक्षण - कंपवात, गलशोष, आदि वातिक लक्षण अतिविषा के विषाक्त लक्षण है।
भल्लातक
भल्लातक शोधन – भल्लातक का वृंत मुख काट कर सात दिन के लिए ईंट के चूर्ण में गाढ़ कर रखे और फिर जल से प्रक्षालन करे ।
जो भल्लातक जल में डूब जाए वह उत्तम भल्लातक होता है ।
भल्लातक निषेध – पित्त प्रकृति पुरुष, ग्रीष्म ऋतु, शिशु को, गर्भिणी को भल्लातक निषेध है ।
भल्लातक के विषाक्त लक्षण – पित्त प्रकोप, दाह, स्फोट, त्वक विकार
गुग्गलु
प्रशस्त गुग्गलु – जो गुग्गलु पिच्छिल, स्निग्ध, जल विलेय, मिलावट रहित, और तिक्त होती है वही श्रेष्ठ होती हैं ।
गुग्गलु का संग्रह काल – ग्रीष्म ऋतु में वृक्षो से प्रचुर मात्रा में निर्यास निकलता हैं, शिशिर एवं हेमंत ऋतु में वह जम जाता हैं और उसे संग्रह कर लेते हैं। गुग्गलु सेवन करते समय मद्य, तीक्ष्ण, अम्ल पदार्थो का सेवन नहीं करना चाहिए ।
गुग्गलु शोधन – चार गुना गोदुग्ध में १ प्रहर तक स्वेदन करने से गुग्गलु शुद्ध हो जाता हैं।
गुग्गलु के अतिसेवन से उत्पन्न उपद्रव – क्लेव्य, मूर्च्छा, यकृत तथा फुफ्फुस विकार
Antibacterial plants –
निम्ब, कुमारी (ग्वारपाठा), अजवाइन (यवानी), pterygospermin of शोभांजन, ये सभी antibacterial plants होते है ।
अष्टांगहृदय के अनुसार आग्रेय वर्ग (Important) –
ज्वर में मुस्तक और पित्तपापड़ा, प्रमेह में आमलकी और हरिद्रा, मेदो रोग एवं वात विकारों में गुग्गलु, कृमि रोग में विडंग, रक्तपित्त में वासा, विष में शिरिष, कुष्ठ में खदिर, मुत्रकृच्छ में गोक्षुर
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