विष का सामान्य चिकित्सा क्रम :

विष चिकित्सा के दो भेद
१. सामान्य चिकित्सा क्रम – जिस विषाक्तता में स्पष्ट पता नहीं लग पाता कि कौन सा विष हैं उसमें सामान्य चिकित्सोपक्रम का उपयोग किया जाता हैं।
२. विशिष्ट चिकित्सा क्रम – प्रत्यक विष की अलग अलग चिकित्सोपक्रम को विशिष्ट चिकित्सा क्रम कहते हैं।

विष के सामान्य चिकित्सोपक्रम :

श्लोक


मन्त्र अरिष्ट उत्कर्तन निष्पिडन चुषगण अग्नि परिषेका: ।
अवगाह रक्तमोक्षण वमन विरेको उपधनानि ।।
हृदयावरण अंजन नस्य धूम लेह औषध प्रश्मनानि ।
प्रतिसारणं प्रतिविषं संज्ञा संस्थापनं लेप: ।।
मृतसंजीवनमेव च विंशतिरेते चतुर्भिरधिका: ।

Trick


मरि उनी CA परि, गवाह रक्त व विघान है अंजन धूलेह और शमन या प्रतिविष की संज्ञा ले संजीव

मरि – मन्त्र, अरिष्ट
उनि – उत्कर्तन, निष्पिडन
C – चूषण
A – अग्नि कर्म
परि – परिषेक
गवाह – अवगाहन
रक्त – रक्तमोक्षण
– वमन
वि – विरेचन
धान – उपधान
है – ह्रदयावरण
– अंजन
– नस्य
धू – धूम
लेह – लेह
और – औषध
शमन – प्रशमन / प्रधमन
प्रतिविष – प्रतिसारण, प्रतिविष
संज्ञा – संज्ञास्थापन
ले – लेप
संजीव – मृतसंजीव

चिकित्सोपक्रम :

१. मन्त्र (inchantings)-
सत्यवादी, ब्रह्मज्ञानी और तपस्विनी लोगों द्वारा प्रयुक्त मंत्र जितनी शीघ्रता से विष का नाश करते है उतनी जल्दी औषध प्रयोग से उसका नाश नहीं हो सकता। मन्त्रों का प्रयोग विशेष रूप से सर्पदंश में किया जाता हैं।


२. अरिष्ट बन्धन (application of torniquette/ ligature)
दंषस्थान के चार या आठ अंगुल ऊपर अरिष्ट बन्धन करना चाहिए। अरिष्ट बन्धन द्वारा विष रुककर ऊपर की ओर नहीं जा पाता हैं।


३. उत्कर्तन (incision)
उत्कर्तन का अर्थ है छेदन या काटना। दंश स्थान पर चीरा लगाने से विष का वेग आगे नहीं बढ़ पाता हैं। चीरा मांसल स्थल पर लगाया जाता हैं लेकिन मर्म स्थान का ध्यान देकर चीरा लगाना चाहिए।


४. निष्पिडन (compression)
दंश स्थान पर चीरा लगाने के बाद दबा दबा कर रक्त को बहार निकालना चाहिए।


५. चूषण (suction)
दंश स्थान पर चीरा लगाने के बाद उसके रक्त को चूस चूस कर बाहर निकालना चाहिए। चूषण कर्म करने वाले को मुंह में बालू या आटा भरकर ही चूषण कर्म करना चाहिए।


६. अग्नि कर्म या दहन (cauterization)
अग्नि कर्म लोहे या स्वर्ण की शलाका को आग में तपाकर किया जाता हैं। अग्नि कर्म त्वचा एवं मांस पर किया जाता हैं। पित्त प्रकृति वाले व्यक्तियों में अग्नि कर्म नहीं करना चाहिए।


७. परिषेक (irrigation)
परिषेक का अर्थ है छिड़काव। रोगी के संज्ञा नाश को रोकने के लिए मुंह पर ठंडे पानी के छींटे मरने चाहिए।


८. अवगाहन (immersion)
अवगाहन का अर्थ हैं स्नान। रोगी को शीतल जल में शरीर को भिगोना।


९. रक्तमोक्षण (blood letting)
विष से पीड़ित रोगी की प्राण रक्षा के लिए दूषित रक्त का विस्त्रावण करना चाहिए। इसके लिए शृंगी, जलौका, प्रच्छन्न आदि का प्रयोग करते हैं।


१०. वमन कर्म (emesis)
हृदय की रक्षा करने के लिए वमन कर्म का उपयोग किया जाता हैं।


११. विरेचन कर्म (purgation)
जिस रोगी के कोष्ठ में दाह, आधमान हो या जो पित्त प्रकृति का हो विरेचन कर्म करना चाहिए।


१२. उपधान (application of medicines over incised scalp)
शिर पर काकपद बनाकर उसपर सातला के कल्क का लेप करते हैं। ये रोगी को संज्ञानाश की अवस्था से निकालने के लिए किया जाता हैं।


१३. हृदय आवरण (protecting and stimulating the heart)
हृदय को सुरक्षा प्रदान करने के लिए मधु या घृत का पान, स्वर्ण गैरिक को जल में घोलकर पिलाया जाता हैं।


१४. अंजन (collyrium)
विष के कारण दृष्टि शक्ति का विनाश होने से रोकने के लिए अंजन का प्रयोग करते हैं।


१५. नस्य कर्म (snuffing)
विष के कारण आंख, नाक, कान के अवरोध होने की स्तिथि में नस्य कर्म का प्रयोग करते हैं।


१६. धूम (medicinal smokes)
औषधियों के धूम का पान करने से बंद स्त्रोत खुल जाता हैं।


१७. लेह (licking semi liquids)
विष के कारण मुंह सूखने पर औषधियों को आसानी से निगलने के लिए लेहो का प्रयोग किया जाता हैं।


१८. औषध (medication) –
जैसे – अजित अगद, अजेय घृत, क्षार अगद, अमृत घृत, कल्याणक सर्पि, दशांग अगद, महा अगद आदि।


१९. प्रश्मन/ प्रधमन (blowing)
नली में औषध को रखकर फूक मारकर औषधि को नासा के अंदर पहुंचाना।


२०. प्रतिसरण/ प्रघर्षण (scrubbing)
दूषित रक्त को निकलने के लिए दंश स्थान पर शुष्क चूर्ण को रगड़ना चाहिए।


२१. प्रतिविष (antidotes)
जांगम विष स्थावर विष का और स्थावर विष जांगम विष का प्रतिकारक हैं।


२२. संज्ञास्थापन (revival of consciousness)
इसके लिए प्रधमन नस्य का प्रयोग, काकपद या तेज़ आवाज़ का प्रयोग करते हैं।


२३. लेप (oinment)
दंश स्थान पर शीतल कल्क का लेप करते हैं।


२४. मृत संजीवन
इसका अर्थ हैं मारे हुए प्राणी को जीवित करना।

Contributor- Medico Eshika Keshari

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