संस्कार का महत्त्व गुणों की वृद्धि एवं गुणों में परिवर्तन करना होता हैं। संहिताओं में बाल्यकाल में ८ संस्कारों का वर्णन मिलता हैं। ८ संस्कार निम्न वर्णित हैं जो निम्न है :
जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, कर्णवेधन, चूड़ाकर्म, उपनयन, वेदारम्भ संस्कार।
Trick – जानी अन्न का चूर्ण ऊपर वही है।
जा – जातकर्म
नी – नामकरण , निष्क्रमण कर्म
अन्न – अन्नप्राशन / फलप्राशन
का – कर्णवेधन
चूर्ण – चूड़ाकर्म
ऊपर – उपनयन
वही- वेदारम्भ
अब बाल्यावस्था में होने वाले संस्कारो का वर्णन करेंगें :
१. जातकर्म संस्कार :
बालक के जन्म के बाद उसका जीवन सुरक्षित करने के लिए जातकर्म संस्कार जन्म होते ही किया जाता हैं। जातकर्म के द्वारा बच्चे को आहार लेने योग्य बनाया जाता हैं। जातकर्म में घृत, मधु और स्वर्ण का प्रयोग किया जाता हैं। आचार्य चरक के अनुसार बालक को सर्वप्रथम घृत और मधु का सेवन कराते हैं और उसके बाद दक्षिण स्तन से दूध पिलाते हैं। आचार्य सुश्रुत के अनुसार बालक को प्रथम दिन घृत, मधु एवं स्वर्ण का पान कराते हैं।
२. नामकरण संस्कार :
आचार्य चरक, सुश्रुत, चक्रपाणि एवं अष्टाङ्गह्रदय के अनुसार नामकरण संस्कार बालक के जन्म के बाद 10 वें दिन करते हैं। अष्टाङ्गसंग्रह के अनुसार 10 वें, 12 वें, 100 वें या 1 वर्ष पर करने को बताया हैं। आचार्य हरित ने 12 वें दिन को ये संस्कार करना बताया हैं। मनुस्मृति के अनुसार 10 वें या 12 वें दिन पर नामकरण संस्कार करना बताया हैं।
बालक का नाम बालक के पिता 2 नाम रखते हैं। एक नाक्षत्रिक नाम और दूसरा अभिप्रायिक नाम रखते हैं।
३. निष्क्रमण संस्कार :
निष्क्रमण संस्कार चौथे मास में किया जाता हैं। चौथे मास में बालक को सूतिकगार से बाहर लाने के लिए बालक को स्नान कराकर अच्छे और स्वच्छ वस्त्र धारण करके और देवताओं को नमस्कार करने के बाद बालक को बाहर निकलते हैं और मंदिर में भी प्रवेश कराते हैं।
४. अन्नप्राशन / फलप्राशन :
बालकों को प्रथम बार दिया हुआ आहार लघु, आसानी से पचने वाला, हितकारी, तरल पदार्थ युक्त और मुलायम होना चाहिए। सभी आचार्यो ने अन्नप्राशन 6 ठे मास में बताया हैं। आचार्य काश्यप ने फलप्राशन 6 ठे मास में बताया हैं और अन्नप्राशन 10 वें मास में दाँतो की उत्पत्ति के बाद बताया हैं।
५. कर्णवेधन संस्कार :
कर्णवेधन संस्कार का उद्देश्य बालक की रक्षा (भूत प्रेत आदि से) एवं आभूषण धारण ( सौन्दर्य वर्धन ) करने के लिए बताया गया हैं। आचार्य सुश्रुत के अनुसार ये संस्कार 6 ठे या सातवें मास में करना चाहिए। आचार्य वाग्भट के अनुसार कर्णवेधन 6 ठे, 7 वें या 8 वें मास में करना चाहिए। बालिकाओं में पहले वाम कर्ण का कर्णवेधन और बालकों में पहले दक्षिण कर्ण का कर्णवेधन करना चाहिए। कर्णवेधन पतली त्वचा पर और जहाँ सूर्य की किरणों आती हैं उस स्थल पर निशान बनाकर करना चाहिए।
६. चूड़ाकर्म संस्कार :
इसको मुण्डन संस्कार या केशच्छेदन संस्कार भी कहते हैं। इस संस्कार में प्रथम बार बालक के सिर के बाल कटवाते हैं। चूड़ाकर्म 1 या 3 वर्ष में करते हैं।
७. उपनयन और ८. वेदारम्भ संस्कार :
उपनयन संस्कार का उद्देश्य गुरु के समीप लाने से हैं। वेदारम्भ का अर्थ है विद्याध्ययन। इस संस्कार का आरंभ 5 वर्ष की आयु से करते हैं।
Contributor- Medico Eshika Keshari
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