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कर्म :

संयोग च विभाग च कारणं द्रव्यमाश्रितम्।
कर्तव्यस्य क्रिया कर्म कर्म नान्दयपेक्षते।।

आचार्य चरक के अनुसार जो संयोग और विभाग में अर्थात शरीर मे परिवर्तन में कारण हो , द्रव्य में आश्रित हो और कर्तव्यों के लिए होने वाली क्रिया को कर्म कहा जाता है। कर्म किसी अन्य कर्म की अपेक्षा नहीं करता।

विशिष्ट कर्म :

१. दीपन – जो द्रव्य जठराग्नि को प्रदीप्त करके भूख को बढ़ाता हैं लेकिन अन्न का पाचन नहीं करते। ये द्रव्य लघु, तीक्ष्ण और उष्ण वीर्य होते है। ये द्रव्य विशेषतः वायु महाभूत प्रधान होता है। ये अभ्यवहरण शक्ति को बढ़ाता हैं।
जैसे – सौंफ

२. पाचन – जो द्रव्य जठराग्नि को प्रदीप्त न करके अपक्व अन्नरस को पचाता है। ये द्रव्य विशेषतः अग्नि महाभूत प्रधान होता है। ये जरणशक्ति को बढ़ाता हैं।
जैसे – नागकेसर
चित्रक दीपन और पाचन दोनों कर्म करने वाले द्रव्य हैं।

३. ग्राही – इसको उष्ण संग्राहक और आम ग्राही भी कहते हैं। ये उष्ण वीर्य, कटु विपाक और कटु रस युक्त होता है। ये अग्नि को दिप्त करके आम का पाचन करता है जिसकी उष्णता के कारण द्रवांश का शोषण करके पुरीष को बाँधता है। ये दीपन पाचन करता है।
जैसे – जातीफल

४. स्तम्भन – इसको शीत ग्राही और पक्व ग्राही भी कहते हैं। ये रुक्ष, शीत वीर्य, कषाय रस का होता हैं। ये द्रव्य आन्त्र में वायु की वृद्धि करके द्रवांश का शोषण करता है। ये आम का पाचन नहीं करता। ये अग्निसादक होता हैं।
जैसे – धातकी, कुटज

५. अभिष्यन्दि – जो द्रव्य पिच्छिलता उतपन्न करे और कफ का प्रकोप करे तथा शरीर में गौरव उतपन्न करता हैं।
जैसे – दही

६. प्रमाथी – इसका कर्म अभिष्यन्दि द्रव्य से बिल्कुल उल्टा होता हैं। ये स्रोतसो में उतपन्न दोषों के संचय को दूर करता हैं।
जैसे – मरिच, वचा

७. व्यवायी – जो द्रव्य जठराग्नि के द्वारा पक्व होने से पहले ही पूरे शरीर में व्याप्त होकर अपने गुण कर्म को दिखाता हैं।
जैसे – अहिफेन, भांग

८. विकासी – जो द्रव्य धातुओं से ओज को विभक्त करके संधियों के बंधनों को शिथिल करता है।
जैसे – कोद्रव

९. मेध्य – ये द्रव्य बुद्धि को बढ़ाने वाला होता है। इसको मस्तिष्क बल्य भी कहते है। आचार्य चरकानुसार मण्डूकपर्णी, शंखपुष्पी, यष्टीमधु और गुडूची ये चार मेध्य रसायन हैं। अन्य मेध्य रसायन – ब्राह्मी, वचा।

१०. वेदनास्थापन – ये द्रव्य दुखात्मक वेदना का शमन करके सुखात्मक वेदना को स्थापित करता है। वेदनास्थापन द्रव्य वातशामक होते है।
जैसे – रास्ना, एरण्ड

११. बृंहण – ये शरीर को पुष्ट करने वाला होता हैं। ये पृथ्वी और जल महाभूत प्रधान होता हैं। आचार्य चरकानुसार मांस बृंहणीय द्रव्यों में अग्र्य माना हैं। आचार्य सुश्रुतानुसार ककोल्यादि गण को बृंहण कहा जाता हैं।

१२. लंघन – ये द्रव्य शरीर मे हल्कापन लाता है। लंघन द्रव्य अग्नि, आकाश और वायु महाभूतों की अधिकता वाले होते हैं। आचार्य चरकानुसार १० प्रकार के लंघन – वमन, विरेचन, बस्ति, शिरोविरेचन, आतप, वायु, पिपासा, व्यायाम, उपवास, पाचन औषधियों का सेवन।

१३. बल्य – ये द्रव्य शरीर की शक्ति को बढ़ाने वाले होते है।
जैसे – आचार्य चरक का बल्य महाकषाय (शतावरी, अशवगंधा, कपिकछु, माषपर्णी, मुद्गपर्णी, बला, अतिबला, क्षीरविदारी, ऐन्द्री, रोहिणी)

१४. जीवनीय – ये द्रव्य जीवन के लिए हितकर होते है। इन द्रव्यों में अल्प मात्रा में प्रयुक्त होने पर भी प्राणधारण शक्ति अधिक होती है। ये पृथ्वी एवं जल महाभूत की अधिकता वाले होते है।
जैसे – विदारीकंद, दुग्ध

Contributor- Medico Eshika Keshari

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